दु:खमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्यजेत् |
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् || 8||
दुःखम् कष्टदायक; इति–इस प्रकार; एव-निश्चय ही; यत्-जो; कर्म-कार्य; काय-शरीर के लिए; कलेश-कष्टपूर्ण; भयात्-भय से; त्यजेत्-त्याग देता है। सः-वह; कृत्वा-करके; राजसम्-रजोगुण में; त्यागम्-त्याग; न कभी नहीं; एव-निश्चय ही; त्याग-त्यागः फलम्-फल को; लभेत्–प्राप्त करता है।
BG 18.8: नियत कर्त्तव्यों को कष्टप्रद समझकर किया गया त्याग रजोगुणी कहलाता है। ऐसा त्याग कभी लाभदायक या फलप्रद नहीं होता।
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जीवन में उन्नति करने का अर्थ उत्तरदायित्वों का बढ़ना है, उनका त्याग करना नहीं है। अनुभवहीन लोग प्रायः इस सत्य को समझ नहीं पाते। दुःखो से छुटकारा पाने की इच्छा और पलायनवादी प्रवृत्ति साधकों को उत्तरदायित्वों का त्याग करने को प्रेरित करती है। जीवन निर्वाह कभी कष्ट रहित नहीं होता। उन्नत साधक वे नहीं होते, जो कुछ न करने के कारण शांत रहते हैं। बल्कि इसके विपरीत यदि उन्हें कोई बड़ा कार्यभार सौंपा जाता है तब वे उसको बिना विचलित हुए संपन्न करते हैं। श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह घोषित करते हैं कि अपने नियत कर्त्तव्यों को क्लेशप्रद समझकर त्याग देना रजोगुणी त्याग कहा जाता है।
प्रारम्भ से ही भगवद्गीता में कर्म करने का उपदेश दिया गया है। अर्जुन अपने कर्त्तव्य को अप्रिय और कष्टदायक समझता है जिसके परिणामस्वरूप वह युद्ध से पलायन करना चाहता है। श्रीकृष्ण इसे अज्ञानता और दुर्बलता कहते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन के भीतर आंतरिक परिवर्तन लाने हेतु उसे प्रोत्साहित करते हैं जिससे कि वह अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें। वे अर्जुन को प्रेरित करते हैं ताकि वह अपने ज्ञान चक्षुओं को विकसित कर सके। भगवद्गीता को सुन कर उसने अपने क्षत्रिय धर्म को नहीं बदला बल्कि उसने अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करने के लिए अपनी चेतना को विकसित किया। इससे पूर्व उसका ध्येय अपनी सुख-सुविधा और यश के लिए हस्तिनापुर का राज्य प्राप्त करना था। बाद में उसने भगवान की भक्ति रूपी परम कर्तव्य का पालन किया।